लौह नगरी किरंदुल में बड़े ही हर्ष उल्लास के साथ निकली प्रभु जगन्नाथ की रथयात्रा… पूरा लौह नगरी गूंज उठा प्रभु जगन्नाथ की जयकारे से…
जिज्ञासा देवांगन दंतेवाडा /किरंदुल- लौह नगरी किरंदुल में राघव मंदिर स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर से गाजे बाजे के साथ भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं देवी सुभद्रा का रथ निकला तो हर तरफ भगवान जगन्नाथ के जयकारों से नगर गुंजायमान हुआ । रथ यात्रा राम मंदिर से शुरू की गई जिसमे परंपरा अनुसार सोने की झाड़ू से झाड़ू मारने की परंपरा “छेरा पहँरा” एनएमडीसी किरंदुल परियोजना के मुख्य महाप्रबंधक संजीव साही ने निभाई । यात्रा में हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे।
भक्त गण डी जे और पारंपरिक बजे में नाचते गाते नजर आए। रथयात्रा श्री राघव मंदिर से प्रारभ होकर अम्बेडकर पार्क,शापिंग सेंटर,बैंक चौक,पेट्रोल पम्प होते हुए फुटबॉल ग्राउंड स्थित उत्कल समाज मौसी के घर गुंडिचा मंदिर में पहुँची ।इस दौरान भारी भीड़ को देखते हुए पुलिस प्रशासन ने सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की थी । समापन पर भक्तों ने खिचड़ी प्रसाद ग्रहण किया।रथ यात्रा में कार्मिक प्रमुख बी के, मुख्य महाप्रबंधक वर्कस किशन आहूजा ,महाप्रबंधक उत्पादन राजा कुमार ,महाप्रबंधक विद्युत सुब्रमण्यम ,बैलाडीला देवस्थान समिति के सचिव ए के सिंह ,बचेली परियोजना के उपमहाप्रबंधक कार्मिक धर्मेंद्र आचार्या ,उप महाप्रबंधक कार्मिक राकेश रंजन माधव,उत्कल समाज विकास समिति के आर सी नाहक ,दिलीप मोहंती ,शरद मिश्रा ,देवराज लिंका ,बृजेश मिश्रा सहित सदस्य एवं सैकड़ों की संख्या में भक्त उपस्थित थे।
आप को बता दे कि जगन्नाथ रथ यात्रा एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जिसमें भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई भगवान बलभद्र और उनकी छोटी बहन देवी सुभद्रा की पुरी, ओडिशा में उनके घर के मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर दूर गुंडिचा में उनकी मौसी के मंदिर तक की यात्रा का जश्न मनाया जाता है।
इस त्योहार के पीछे किंवदंती यह है कि एक बार देवी सुभद्रा ने गुंडिचा में अपनी मौसी के घर जाने की इच्छा व्यक्त की।
उसकी इच्छा पूरी करने हेतु भगवान जगन्नाथ और भगवान बलभद्र ने रथ पर उसके साथ जाने का फैसला किया। अतः इस घटना की याद में देवताओं को इसी तरह यात्रा पर ले जाकर प्रत्येक वर्ष त्योहार के रूप में मनाया जाता है।
माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में पूर्वी गंग राजवंश के राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव द्वारा करवाया गया था। हालाँकि कुछ सूत्रों का कहना है कि यह त्योहार प्राचीन काल से ही चलन में था।इस त्योहार को रथों के त्योहार के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि देवताओं को लकड़ी के तीन बड़े रथों पर ले जाया जाता है और भक्तगण इन रथों को रस्सियों से खींचा जाता है।यह त्योहार आषाढ़ (जून-जुलाई) के महीने के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन से शुरू होता है और नौ दिनों तक चलता है।कैसे शुरू हुई जगन्नाथ रथ यात्रा धार्मिक मान्यता के अनुसार एक बार बहन सुभद्रा ने अपने भाइयों कृष्ण और बलरामजी से नगर को देखने की इच्छा प्रकट की। फिर दोनों भाइयों ने बड़े ही प्यार से अपनी बहन सुभद्रा के लिए भव्य रथ तैयार करवाया और उस पर सवार होकर तीनों नगर भ्रमण के लिए निकले थे। रास्ते में तीनों अपनी मौसी के घर गुंडिचा भी गए और यहां पर 7 दिन तक रुके और उसके बाद नगर यात्रा को पूरा करके वापस पुरी लौटे। तब से हर साल तीनों भाई-बहन अपने रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं और अपनी मौसी के घर गुंडीचा मंदिर जाते हैं। इनमें सबसे आगे बलराम जी का रथ, बीच में बहन सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे जगन्नाथजी का रथ होता है।